“कलस्टर स्कूल योजना: पहाड़ी अस्मिता और शिक्षा का सांस्कृतिक अपहरण”

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रिपोर्टर – बलवंत सिंह रावत 

उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक आत्मा, उसकी घाटियों और पहाड़ों में बसे गाँवों की साँस-साँस में रची-बसी है। इन्हीं गाँवों की पाठशालाओं से निकलकर कभी बच्चों ने पहला अक्षर सीखा, लोकगीतों की धुनों में उच्चारण गूंजा, और तख्तियों पर भविष्य लिखा गया।

किंतु आज राज्य सरकार द्वारा लाई जा रही “कलस्टर स्कूल योजना”, उस आत्मा को कुचलने की चुपचाप चेष्टा है—एक ऐसी नीति जो शिक्षा सुधार के नाम पर शिक्षा-संस्कार-संवेदना तीनों का अपमान करती है।
शिक्षा नहीं, यह एक नियोजित विस्थापन है
सरकार कहती है कि इस योजना से शिक्षा का स्तर सुधरेगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह पहाड़ों से विद्यालयों को हटा देने की पहल है, जहां न तो सड़कें ठीक हैं, न सुरक्षित मार्ग, और न ही परिवहन की समुचित व्यवस्था।
क्या कोई नीति इतनी संवेदनाशून्य हो सकती है, जो ये मान ले कि एक 6 साल का बच्चा रोज़ाना 5-7 किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पार कर स्कूल आएगा?
क्या शिक्षा का अर्थ केवल चार दीवारों में बैठकर अंग्रेज़ी बोलना है, या फिर वह लोक जीवन, लोक ज्ञान और लोक संस्कारों से जुड़ने की प्रक्रिया है?
सांस्कृतिक हत्या की ओर एक कदम
उत्तराखण्ड की शिक्षा प्रणाली केवल पाठ्यक्रम नहीं, संस्कारों की विरासत है।
हमारी पाठशालाओं में घंटियों के साथ गूंजते श्लोक,
गुरु-शिष्य परंपरा की सरल झलक,
और देवभूमि की मिट्टी में उगा आत्मविश्वास होता था।
कलस्टर स्कूल योजना इन सबको केंद्रित सुविधा के नाम पर मिटाने का प्रयास है।
गांवों की पाठशालाएँ सिर्फ शिक्षा केंद्र नहीं, सांस्कृतिक चौपालें थीं
जहाँ बच्चों ने ‘नंदा-अष्टमी’, ‘घुघुतिया’ और ‘फूलदेई’ जैसे त्योहारों में भागीदारी से जीवन को जीना सीखा, वहाँ अब सरकारी योजनाओं के नाम पर ताले लगाए जा रहे हैं। स्कूलों का बंद होना केवल दरवाज़ों का बंद होना नहीं है, यह लोक-समाज की चेतना के द्वार बंद करने जैसा है।
बेटियों और गरीब परिवारों पर सबसे गहरा आघात
पहाड़ी गांवों की बेटियाँ, जिनके लिए पास का स्कूल शिक्षा की पहली सीढ़ी था,
अब उन्हें दूर के कलस्टर स्कूल भेजना नैतिक और सामाजिक असुरक्षा का खतरा है।
आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवार अपने बच्चों को दूर नहीं भेज पाएंगे।
यानी, एक वर्ग विशेष को शिक्षा से धीरे-धीरे वंचित किया जाएगा।
शिक्षक समाज का सम्मान, न कि आंकड़ों की भूल
शिक्षकों को “कम छात्र संख्या” के नाम पर बदनाम कर स्कूलों से हटाना,
उनके जीवन भर के समर्पण का अपमान है।
ये वही शिक्षक हैं जो बर्फ़बारी में भी स्कूल खोले रखते हैं, जो अपने वेतन से चॉक, चार्ट और झाड़ू तक खरीदते हैं, जो विद्यार्थियों को घर से लाकर पढ़ाते हैं।
हम सरकार से सादर आग्रह करते हैं—पहाड़ को समझो, पहाड़ के भूगोल को पढ़ो, पहाड़ की आत्मा को पहचानो।
संख्या आधारित योजनाएँ मैदानों में चल सकती हैं, लेकिन उत्तराखण्ड भौगोलिक कठिनाइयों और सांस्कृतिक विशिष्टताओं वाला राज्य है। यहां की योजना यहां के जनजीवन से संवाद करके ही बन सकती है।
किसी भी स्कूल को बंद करने से पहले जन संवाद किया जाए।
पहाड़ी क्षेत्रों में छोटे स्कूलों को मजबूत किया जाए, न कि बंद।
स्थानीय भाषा, संस्कृति, पर्वों और लोकज्ञान को पाठ्यक्रम और शैक्षिक गतिविधियों में जोड़ा जाए।
शिक्षा को केवल संख्या और दक्षता से नहीं, संवेदना और समावेशिता से परखा जाए।
यदि सरकार नहीं चेती, तो हम लोकतांत्रिक मर्यादा में रहकर आंदोलन करेंगे।
गाँव-गाँव जाकर लोगों को जागरूक करेंगे।
अपने बच्चों, बेटियों और शिक्षकों की गरिमा की रक्षा हेतु एकजुट होकर खड़े होंगे।
कलस्टर स्कूल नीति की समीक्षा कीजिए,
अन्यथा उत्तराखण्ड की चेतना आपको कभी माफ नहीं करेगी।
यह सिर्फ शिक्षा का सवाल नहीं,
यह हमारी लोक-परंपरा, अस्मिता और भविष्य की रक्षा का प्रश्न है।
जीवन तिवारी

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